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Monday, January 21, 2019

कविता क्या लिखूं तुझे

क्या लिखूं कैसे लिखूं किस तरह लिखूं तुझे।
अब तू ही बता ए कविता मैं क्यूं कर लिखूं तुझे।।

लिखना भूल चुका हूं ज़हन में विचार भी आते नहीं।
कल्पना के पंख अब उन्मुक्त फड़फड़ाते नहीं।।
क्या तेरी भी इच्छा है कि बेवफा लिखूं तुझे।।

Saturday, March 16, 2013

बूढी मेहरीन


खेतों की पगडण्डी का उबड़ खाबड़ रास्ता
हज़ार बार गुजरने के बाद भी
उस रास्ते पे लडखडाती चलती गाँव की सबसे बूढी महरीन
मानो यूँ लग रही थी जैसे कोई नन्ही सी लड़की
रस्सी पे खेला दिखा रही हो

गॉंव के उत्तर में उस पोखरा के पास वाले बगिया में
जहाँ कोई भी जाने से डरता हैं
ये बूढी मेहरीन चली जाती हैं रोज
उस बगिया में
जहाँ से चुन लाती हैं झाउवा भर के सूखे आम के पत्ते
और रोज सांझ को
जला उठती हैं भार....
गॉंव के नन्हे नन्हे बच्चे हाथ में मौनी लिए
चले आते हैं उस महरीन के पास ....
दाना भुझाने

वृद्ध महरीन जिसका पूरा परिवार चला गया था शहर
और छोड़ गया था उसे अकेली
मर मर के जीने को

"तुम"





कुछ लिखने की चाहत लिए जब भी उठता हूँ कलम कागज 
सारे शब्द  खो जाते हैं शून्य में,
हाथ रुक जाते हैं 
खोजने को मन की गहरे में छुपे हुवे भाव को 
जिसे आकर दे सकूँ 
जिस में तुम समां सको 
जिस में तुम्हारे होने को साकार रूप दे सकूँ 

कुछ देर बाद उंगलिया स्वयं उकेरने लगती हैं एक शब्द 
"तुम" 
और एक साकार रूप जीवित हो उठता हैं 
मुस्कुराता हुआ... शर्माता हुआ 

.....अरविन्द..... 

Thursday, October 18, 2012

तो अच्छा लगता हैं

वो जब मुझे देख मुस्कुराए तो अच्छा लगता हैं 
वो बिन बात खिलखिलाए तो अच्छा लगता हैं 

अच्छी लगती  हैं उसके मेंहदी लगे हाथों की खुशबू 
वो अपने माथे पे बिंदिया सजाये तो अच्छा लगता हैं 

यूँ तो बिन श्रृंगार किये रूप की गागर हैं वो 
कर श्रृगार रूप और निखर जाये तो अच्छा लगता हैं 

हजारो होगी रूपवती पर उसके जैसी और कहाँ 
बाहों में आये और  धड़क जाये तो अच्छा लगता हैं 

पहले मिलन की यादें अक्सर दिल को बहकाती  हैं 
हर रात पहला मिलन सा  बन जाए तो अच्छा लगता हैं 

बेकरारी के आलम में



बेकरारी के आलम में , तनहाइयों के मौसम में
दिल आज भी रोता हैं तेरी यादो के मौसम में॥

जब मिलेगे हम तुमसे क्या क्या बाते होगी तब
सोचता रहता हूँ सारी रात चाहतो के मौसम में।।

नज़र झुका क़र बैठे हैं कुछ बोलते भी नहीं
कितने अरमान दबे थे दिल में मुलाकातों के मौसम में

मुमकीन नहीं हैं में तेरी हो जाऊ "कवँल "।
भूल जाना कसमे जो किये थे बहारो के मौसम में

प्रकृति और पुरुष

हाथों की छुवन से सिहर उठता हैं रोम रोम 
एक लावा सा उबल उठता हैं तन मन में 
और एकाकार होकर 
सम्पूर्ण हो जाने का भाव 
अपनी सीमाएं लाघ उठता हैं 

दो जिस्म और दो जान जब एकाकार होकर 
सृजन करती हैं एक नवजीवन का 
और उसी पल ठीक उसी पल 
प्रकृति और पुरुष का भाव अपने आप 
साकार हो उठता हैं 

बस थक गया हूँ सुनते सुनते

क्यूँ ऐसा लगता हैं  की 
मैं तुम्हे सुन सकता हूँ 
तुम्हारी हर बात 
वो जो तुम कहती हो और 
वो जो तुम नहीं भी कहती 

अब की आना तो मेरा वो अंश 
मुझे लौटा देना, जिसे अपने साथ ले गई हो,
जो सुन लेता हैं तुम्हारी हर बात 
और बता देता हैं तुम्हे चुपचाप 
तुम्हे खबर भी नहीं होने देता 

थक गया हूँ तुम्हे सुनते सुनते 
बस थक गया हूँ सुनते सुनते