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Sunday, October 17, 2010

रावन का मुक्ति दिवस

हर  साल जलाते  हो  मुझको 
हर साल फिर आ जाता हूँ
कुछ न बिगड़ पाओगे तुम मेरा 
ये तुम सब को बतलाता हूँ 


महा पंडित कहलाता था लाखो त़प ताप किये 
मुक्ति पाने की लालच में मैंने सब पाप किये 
नारायण के हाथों मरना चाहा था 
क्या ये ही मेरा अपराध था 
क्या अपनी मुक्ति का नहीं मुझे अधिकार था 


सबने  धुतकारा  मुझे लाखो श्राप दिए 
हर साल मेरे  मुक्ति दिवस पर उल्हास किये 
चाहो तुम जलाओ मुझे 
कितने भी जश्न बना लो 
फिर भी में जिन्दा हूँ और रहूगा 
जब तक की तुम सब का रावन जिन्दा हैं
रिश्वत खोरी कालाबाजार 
कन्याभ्रून हत्या बलत्कार 
ये सब पाप नहीं हैं 
क्या तुम सब ने किये कभी अपराध नहीं  हैं 


मुझे छोड़ कर तुम अपना रावन जलाओ 
अपने मन मस्तिष्क में बसे रावन को मिटाओ 
तब कहीं दशहरा का असली जश्न बनेगा 
हर गोशा गुलिश्तां दिखेगा  

Wednesday, October 13, 2010

कल्पना अंतर्मन की ........



रात के दो बजे
नींद कहाँ थी आँखों में
और होती भी कहाँ से
बुखार से बदन तप जो रहा था

तपते बदन पर सिर्फ एक पतली  सी चादर ओढ़े लेता था
और तब ही महसूस किया मैंने तुम्हरे हाथो की छुअन को
वो छुअन जलते तपते बदन पर ठंडक दे रही थी.
सहला रही थी 
तुम्हारे हाथो की उगलियाँ मेरे बालो को 
और जाने कब मुझे नींद आ गई पता नही चला

सुबह हुई आँख खुली
बदन की तपन ख़त्म हो गई थी
बुखार उतर चूका था
तब ही मुझे एहसास हुआ तुम्हारा
जो आई थी रात में मुझे बुखार में सँभालने
अब नहीं हो मेरे पास

कौन थी तुम
हकीकत थी या ख्वाब थी
नहीं समझ पर रहा हूँ मैं
तुम्हारा वजूद हैं या मेरी कल्पना में ही जिन्दा हो

हाँ तुम कल्पना ही हो मेरे अंतर्मन की
जिसे गढ़ा था मेरे मन ने
और अपने आप को भर्मित किया ......