हर साल फिर आ जाता हूँ
कुछ न बिगड़ पाओगे तुम मेरा
ये तुम सब को बतलाता हूँ
महा पंडित कहलाता था लाखो त़प ताप किये
मुक्ति पाने की लालच में मैंने सब पाप किये
नारायण के हाथों मरना चाहा था
क्या ये ही मेरा अपराध था
क्या अपनी मुक्ति का नहीं मुझे अधिकार था
सबने धुतकारा मुझे लाखो श्राप दिए
हर साल मेरे मुक्ति दिवस पर उल्हास किये
चाहो तुम जलाओ मुझे
कितने भी जश्न बना लो
फिर भी में जिन्दा हूँ और रहूगा
जब तक की तुम सब का रावन जिन्दा हैं
रिश्वत खोरी कालाबाजार
कन्याभ्रून हत्या बलत्कार
ये सब पाप नहीं हैं
क्या तुम सब ने किये कभी अपराध नहीं हैं
मुझे छोड़ कर तुम अपना रावन जलाओ
अपने मन मस्तिष्क में बसे रावन को मिटाओ
तब कहीं दशहरा का असली जश्न बनेगा
हर गोशा गुलिश्तां दिखेगा
5 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
"सर्वत्र रमते इति राम:"
satye kaha bandhu
bahut bahut badhai
bahut hee sundar post..badhayi
हर साल जलाते हो मुझको
हर साल फिर आ जाता हूँ
कुछ न बिगड़ पाओगे तुम मेरा
ये तुम सब को बतलाता हूँ
bahut hee sahi likha hai aapne...ye lalkar nihsandeh hee bahut chintajank hai...
DEEPAWALEE KEE HARDIK SHUBHKAMNAYEN
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