Monday, November 15, 2010
क़त्ल किया और खुद ही शोर मचा दिया
Wednesday, November 10, 2010
हर इक के हाथ में पत्थर हैं और मेरा सर हैं
वो जो खंडहर सी पुरानी हवेली हैं नुक्कड़ पर
कौन रहता था उस में अब कहाँ उनका बसर हैं
सुना हैं अब वो फिर से लौट आने वाला हैं
ऐ खुदा ये कितनी दिलखुश खबर हैं
उसने फिर मुद्दतों बाद याद किया तुझे "कँवल"
ये उसकी नवाजिश हैं ये खुदा की मेहर है
Sunday, October 17, 2010
रावन का मुक्ति दिवस
हर साल फिर आ जाता हूँ
कुछ न बिगड़ पाओगे तुम मेरा
ये तुम सब को बतलाता हूँ
महा पंडित कहलाता था लाखो त़प ताप किये
मुक्ति पाने की लालच में मैंने सब पाप किये
नारायण के हाथों मरना चाहा था
क्या ये ही मेरा अपराध था
क्या अपनी मुक्ति का नहीं मुझे अधिकार था
सबने धुतकारा मुझे लाखो श्राप दिए
हर साल मेरे मुक्ति दिवस पर उल्हास किये
चाहो तुम जलाओ मुझे
कितने भी जश्न बना लो
फिर भी में जिन्दा हूँ और रहूगा
जब तक की तुम सब का रावन जिन्दा हैं
रिश्वत खोरी कालाबाजार
कन्याभ्रून हत्या बलत्कार
ये सब पाप नहीं हैं
क्या तुम सब ने किये कभी अपराध नहीं हैं
मुझे छोड़ कर तुम अपना रावन जलाओ
अपने मन मस्तिष्क में बसे रावन को मिटाओ
तब कहीं दशहरा का असली जश्न बनेगा
हर गोशा गुलिश्तां दिखेगा
Wednesday, October 13, 2010
कल्पना अंतर्मन की ........
नींद कहाँ थी आँखों में
और होती भी कहाँ से
बुखार से बदन तप जो रहा था
तपते बदन पर सिर्फ एक पतली सी चादर ओढ़े लेता था
और तब ही महसूस किया मैंने तुम्हरे हाथो की छुअन को
वो छुअन जलते तपते बदन पर ठंडक दे रही थी.
सहला रही थी तुम्हारे हाथो की उगलियाँ मेरे बालो को
और जाने कब मुझे नींद आ गई पता नही चला
सुबह हुई आँख खुली
बदन की तपन ख़त्म हो गई थी
बुखार उतर चूका था
तब ही मुझे एहसास हुआ तुम्हारा
जो आई थी रात में मुझे बुखार में सँभालने
अब नहीं हो मेरे पास
कौन थी तुम
हकीकत थी या ख्वाब थी
नहीं समझ पर रहा हूँ मैं
तुम्हारा वजूद हैं या मेरी कल्पना में ही जिन्दा हो
हाँ तुम कल्पना ही हो मेरे अंतर्मन की
जिसे गढ़ा था मेरे मन ने
और अपने आप को भर्मित किया ......
Wednesday, September 22, 2010
क्या लिखू सोचता ही रहा .......
क्या लिखू सोचता ही रहा .......
एक बार ख्याल आया नेताओ पर लिखू
उनके काले चिठ्ठो पर हाथ साफ़ करू
पर बेचारी कलम ने लिखने से किया इनकार
करने लगी मुझसे मिन्नतें कई हज़ार
बोली एसो पर क्या लिखू जिनका धर्म ईमान नहीं
जिन्हें अपने देश अपनी जनता की परवाह नहीं
बात सच थी कलम की उसे तोलता ही रहा
क्या लिखू सोचता ही रहा ............
फिर ख्याल आया बचपन की बात लिखू
पुरानी बातो को याद कर हर जज्बात लिखू
जैसे ही उठाई कलम बोली मुझे , भूल गए
पिछले हफ्ते ही मुझसे लिखवाई हैं
पूरी रात स्याही की जगह मैंने अश्क ही बहाई हैं
फिर वही प्रशन उठ खड़ा हुआ
क्या लिखू सोचता ही रहा.......
लिखू ऐसी कविता जो हर किसी के मन की बात हो
जिसमे न कोई विवाद न ईर्ष्या न द्वेष की बात हो
जिसे पढ़कर हर मन कुछ कर गुजरने की सोचे
नई विकास की सोचे समृद्ध संसार की सोचे
जिसमे प्यार की चांदनी भरी हो
जिससे लिख कर मेरी कलम भी खुश बड़ी हो
पूरी रात पुरे दिन नए नए विषय खोजता ही रहा
क्या लिखू सोचता ही रहा ........
Saturday, September 18, 2010
एक दिन एक गाँव
एक ऐसे ही गाँव में मैंने एक दिन गुजारा. पुणे से ३० किमी दूर उरली कांचन क़स्बा पड़ता हैं . उरली से ५ किमी दुरी पर हैं एक गाँव शिन्द वणे. शिन्द वणे में एक दिन कैसा था . यही कहानी लेके आया हूँ .
सबसे पहली बात वह जाने का कार्यक्रम बना कैसे . मेरे मामाजी के ऑफिस का ऑफिसबॉय गणेश . उसकी वजह से वहां जाने का मौका मिला . गणेश का गाँव "शिन्द वणे " . उसके गाँव में उर्स (मेला) था .उसके कारन उसने ऑफिस २ दिन की छुट्टी ली थी . और उसने मामाजी से मुझे अपने गाँव साथ में भेजने को मना लिया .
सन्डे १६ अप्रैल, २००६
गणेश २:३० दोपहर में लेने आया . मैं और शिंतू (मौसेरा भाई ) दोनों ही जाने के लिए बैठे थे. घर से उरली कांचन की यात्रा पुणे की सिटी बस से की . उरली कांचन पहुँच कर थोडा बहुत नाश्ता किया . वहां से आगे की यात्रा हमको जीप से करनी थी . ६:०० शाम तक हम गाँव पहुंचे . शिन्द वने में गणेश के गार जा कर थोड़ी देर आराम किया ..उसके बाद गाँव देखने निकले.
पूरा गाँव उरली ससवाद रोड पर बसा हैं . गाँव के दक्षिण दिशा में बड़े विशाल पहाड़ थे . जहा भी देखो कोई न कोई छोटा बड़ा पहाड़ दिखाई दे जाता था . शाम हो चली थी और मस्त हवा भी बहाने लगी थी .
घर पहुँच कर गणेश की माता जी से मुलाकात हुई . लेकिन माता जी हिंदी नहीं बोल पाती थी. केवल मराठी ही आती थी. गणेश को माता जी ने कुछ काम करने को कहा .तक तक हम दोनों भाइयो ने आराम किया .
९:30 बजे हम ने खाना खाया . थोडा आराम करने के बाद हम वहां चल दिए जहाँ उर्स लगा था. ........
वहां एक stage लगा था उस पर गाँव के कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति बैठे थे . stage के आगे काफी जगह खली राखी गई थी. एक तरफ महिलाये तो दूसरी तरफ पुरुष बैठे थे हमने भी जगह ले ली.
Friday, September 17, 2010
जब मैं छोटा बच्चा था........
बात उन दिनों की हैं
जब मैं छोटा बच्चा था........
हर बात नई नई सी लगती थी
तब मुझे मेरी दादी भी परी सी लगती थी
उसकी कहानियों वाली रानी बिलकुल
मेरी सफ़ेद बालो वाली दादी लगती थी
सब की डांट से वो बचाती थी
अपने हिस्से का भी मुझे खिलाती थी
वो भी क्या दिन थे बस जन्नत सा लगता था
जब मैं छोटा बच्चा था..............
गर्मियों की छुटिया जब आती थी
मुझे मेरी दादी से दूर ले जाती थी
पर जहाँ मैं जाता था
वो भी जन्नत ही लगता था
एक और बुढिया जो मुझे हसीं लगती थी
मेरी नानी; मेरी माँ की माँ कहलाती थी
मेरी नानी मेरी दादी की ही तरह थी
न कोई किसी से कम न कोई ज्यादा थी
मेरा बचपन दोनों परियो में झूलता था
जब मैं छोटा बच्चा था.............
आज जब मैं बड़ा हो गया हूँ
उन पुराने दिनों में खो गया हूँ
उन दोनों परियो में से एक परी खो गई हैं
मेरी दादी मुझसे रूठकर एक गहरी नींद में सो गई हैं
आवाज लगता हूँ उसे पर वो कुछ नहीं बोलती हैं
उस तस्वीर में ; जो लगी हैं दीवार पर, बस मुस्कुराती हैं
काश वो वक़्त वही रुक जाता
जब मैं छोटा बच्चा था ............
Thursday, September 9, 2010
क्योकि मैं बेरोजगार जो था
क्योकि मैं बेरोजगार जो था
वो दोस्त जो कहते थे रहेगे साथ सदा
अब वो भी कतराने लगे हैं
मुझे देखकर अपना रास्ता बदलकर
छुप जाने लगे हैं
उन सब के लिए अब मैं बेकार जो था
क्योकि मैं बेरोजगार जो था ........
घर में जो आता हूँ दिल डरता रहता हैं
माँ बाप से नज़र कैसे मिलुगा सोचता रहता हूँ
मुह से कुछ कहते नहीं मगर आँखे पूछती हैं
आज मिली होगी नौकरी सोचती हैं
मुझे परेशां देखकर परेशां होते हैं
उनका अपना था मैं प्यार जो था
क्योकि मैं बेरोजगार जो था ..........
कमरे की दीवारे मुझसे कहती हैं
क्यों उदास पड़ा है बाहर निकल
देख दुनिया बहुत बड़ी हैं
अपने पर भरोसा रख
तेरी जरुरत कहीं पर किसी को बड़ी हैं
फिर उठा लेता हूँ फाइल
चंद रुपये, जो माँ ने राशन के लिए बचा के रखे थे
और निकल पड़ता हूँ फिर दिन भर के लम्बे सफ़र पर
अपनी किस्मत को आजमाने
क्योकि मुझे अपनी किस्मत एतबार जो था
क्योकि मैं बेरोजगार जो था
Friday, September 3, 2010
छोटी सी जिन्दगी में बहुत काम बाकी हैं
Wednesday, May 5, 2010
मुझको तुम अब न फिर से यूँ सदा दो
जल क़र बुझ गया हूँ मुझे न हवा दो …….
ये जो दरख्त है गवाह हैं प्यार के अपने
लिखे हैं जो इन पर नाम अपने हाथो से मिटा दो ……….
क्यों संभाल के रखे हैं पुरानी यादो को
लिखे थे तेरे नाम ख़त उन सब को जला दो ………..
उसने कहा था कैसे जिओगे मुझ बिन अरविन्द
जिन्दा हूँ अभी कोई जरा उसको बता दो ………
Thursday, March 25, 2010
Monday, March 22, 2010
मेरी DIARY के पन्ने..PART 5 (LAST)
शनिवार की सुबह ३ बजे उठ गया क्यूंकि सुल्तानपुर की ट्रेन सुबह ४ बजे थी। ट्रेन सही समय पर आई। स्टेशन पर हम लगभग १५ मिनिट पहले ही पहुच गए थे।
तीन दिन में ही अल्लाहाबाद अपना सा लगने लगा था । या कहूँ वहां से जाने का मन नहीं कर रहा था। लेकिन जाना तो था ही। ट्रेन चल पड़ी। मुझे एक बढ़िया सीट मिल गई ।
ट्रेन में ज्यादा भीड़ नहीं थी ....सुबह का समय था इसलिए । खिड़की के बहार अंधेरा था। पर न जाने क्या देखने की कोशिश में था मैं । पिचले तीन दिन आँखों के सामने गुजरने लगे ........आनन्द भवन .....कंपनी बाग़.......MUSEUM........बड़े हनुमान जी ........गंगा यमुना संगम स्थल .......... सभी आँखों में गुमने लगे। यहाँ तक की वो गलियां जहाँ से हम रोज गुजरते थे। वो दुकान जहाँ सुबह का नाश्ता करने जाता था। वो चाय की दुकान ,जहाँ शाम को चाय पी जाती थी। प्रयाग स्टेशन जहाँ से सुबह का अखबार ले के आता था।
जहाँ अल्लाहाबाद धार्मिक यात्रियों के तीर्थ स्थल हैं ; वाही विधार्थियों के लिए भी किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं हैं अल्लाहाबाद। कारन तो अल्लाहाबाद University । दूसरा वहां की कोचिंग बढ़िया हैं चाहे वो B.sc की हो या फिर PMT , PET हो या IAS . हर तरह की कोचिंग मिल जाती हैं।
वहां हर घर में विद्यार्थी रूम लेके रहते हैं। पूरा शहर ही हॉस्टल बना हुआ हैं। सोनू जहाँ रहता था वो घर यादवो का था। लाइट की कोई प्रॉब्लम न थी। य्दादा लाइट नहीं जाती थी। पानी की भी कोई समस्या न थी अच्छा इलाका था ।
सोनू ने साल भर वहां रह क़र बहुत कुछ सीख लिया था। खाना तो बहुत बढ़िया बना लेता था। मुझे कुछ भी नहीं करने देता।
अल्लाहाबाद घूमने में बड़ा मजा आया, क्यूंकि मौसम ने बहुत अच्छा साथ दिया था। तीन चार दिन धुप ही नहीं निकली ,गर्मी ने परेशां नहीं किया, ठंडी हवा में घूमने का मजा ही दुगुना हो गया था।
सूरज निकल आया था .......खिड़की से बहार दिखने लगा था। खेत .....बाग़ .......नदिया .....नहरे.....सब दिखने लगे थे। नहीं दिखा रहा था तो वो शहर जो पीछे छुट गया था ।
सुल्तानपुर ट्रेन ८ बजे सुबह पहुची । ९ बजे तक मैंने पांडेयपुर में था। ................................
आज भी अलाहाबाद में यादो में बसा हुआ हैं , एक दिन दुबारा जाउगा गंगा माँ के शहर , चन्द्र शेखर के शहर, नहेरु चाचा के शहर..........
Saturday, March 20, 2010
मेरी DIARY के पन्ने PART 4
सोनू ११ बजे कोचिंग से आया । तब हमने संगम जाने का PROGRAMME बनाया। दोपहर में आराम करने के बाद हम घूमने निकले। रुक रुक कर हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। सोनू का ममेरा भई नीरज वाही कुछ दूर पर कमरा ले कर रहता था। वो B.SC. कर रहा था। हम उससे मिलने गए। १५-२० मिनिट रूककर हम संगम देखने के लिए चल दिए। वहां से संगम काफी दूर पर था, इसीलिए हमने वहां जाने के लिए साइकिल नीरज से ले ली।
लगभग १/२ घंटे बाद हम संगम के किरणे पहुच गए। जैसे ही हम वहां पहुचे बारिश शुरू हो गई । बारिश के तेज होने से पहले हमने वाही पास में एक मंदिर में शरण ली। लगभग १५ मिनिट बाद बारिश बंद हो गई।
बारिश के बंद होते ही हम उस प्रसिद मंदिर की तरफ चल दिए । उस मंदिर का मान "बड़े हुनमान जी" हैं। उस मंदिर की इन्टरनेट वेबसाइट भी है ये जान कर बहुत अच्छा लगा। वेबसाइट हैं.......... http://www.badehanumanjee.com/
उस समय हनुमान बाबा के दर्शन नहीं कर सकते थे। क्युकिं दोपहर २ बजे बाबा का श्रृंगार किया जाता हैं । इसी कारन दर्शनाथियों को अनदार दर्शन के जाने पर मनाही थी। जब हम पहुचे बाबा का श्रृंगार किया जा चूका था। आरती की तयारी शुरू की जा रही थी, शायाद ५ बजने वाले थे। हमने बहार का मौसम देखा । बारिश फिर से शुरू हो गई । हमने मंदिर में बने बरामदे में ही खड़े रहना ठीक समझा । लगभग ५ मिनिट बाद वहां के एक पुजारी जी से हमने पूछा के आरती कब शुरू होगी । तब उन्होंने बताया के अभी उसकी ही तयारी शुरू की जा चुकी हैं।
कुछ देर बाद कुछ और पुजारी आये। उन्होंने वहां से सामान हटाना शुरू कर दिया । आरती की थाल बाबा के आगे रख दी गई। फिर एक बड़े पुजारी जी आये , उन्होंने आरती शुरू कर दी।
आरती शुरू होते ही वहां अच्छी खासी भीड़ हो गई। आरती लगभग १०-१५ मिनिट तक जरी थी। उस समय ऐसा लग रहा था। जैसे आरती में सभी भगत जन कहीं खो गए । एक पुजारी ने एक बहुत बड़ा नगाड़ा बजा रहा था। सभी भगत जन वहां लगी घंटियों को बजा रहे थे। कुछ भगत जन ताली बजा कर बाबा का नाम सुमिरन कर रहे थे। कुछ भगत जन आँखे बंद कर ध्यान मगन थे। मेरे हाथ कब जुड़ गए मुझे पता नहीं चला।
बाबा की आरती करने के बाद पुजारी बाहर की तरफ आने लगे। तब ही दुसरे पुजारी ने बीच में खड़े लोगो को हट जाने का इशारा किया। तब लोगो ने बीच में एक रास्ता बना दिया। वह पुजारी वहां से निकल कर मंदिर के द्वार पर बने एक स्तम्भ की आरती करने लगा। साथ ही में वहां से कुछ दूर पर नज़र आ रही गंगा माँ की आरती भी कर रहा था।
आरती समाप्त हुई । अब सभी को अंदर जाने की आनुमति दे दी गई। अंदर पहुचने पर बाबा की आद्भुत स्वरुप के दर्शन हुवे । अकसर मंदिरों में बाबा की कड़ी प्रतिमा देखने को मिलती हैं। शायद भारत में यह आकेला मंदिर हैं जहाँ बाबा की प्रीतम भूमि पर हैं।
हनुमान जी की प्रतिमा जमीन पर थी। उसके आस पास एक फुटपाथ बना था, जहाँ खड़े हो कर बाबा के दर्शन कर सकते हैं। वहां के पुजारी प्रतिमा के पास खड़े थे।
हनुमान बाबा का श्रृंगार बहुत सुन्दर किया हुआ था। बाबा की प्रतिमा के काँधे के पास RAAMJI LAXMAAN की छोटी छोटी प्रतिमा थी। दोनों को पीले वस्त्र पहनाये गए । बाबा के पाँव के पास अहिरावन की मूर्ति थी। सभी के मुकुट चांदी के बने हुवे थे। बाबा का श्रृंगार तुलसी के पत्तो से किया हुआ था। हमको प्रसाद के रूप में वाही तुलसी के पाटते दिए गए ।हम दर्शन कर के बहार आये तो सोने ने बताया की हर साल सावां के महीने में जब बारिश में गंगा जी का पानी बाद जाता हैं तब गंगा का पानी इस मंदिर तक चला आता हैं। और तब तक पानी कम नहीं होता जब तक की बाबा की प्रतिमा तक न पहुच जाये। हालिकं मुझे इस बात को स्वविकार करने में मुश्किल हो रही थी, पर बाद में नानी ने जब बताया तब यकीं हो गया।
हमने एक व्यक्ति से उस स्थान का पता पूछा जहाँ गंगा यमुना का संगम स्थल था। हम उस स्थल की तरफ चल दिए।
थोड़ी देर बाद हम संगम स्थल पर थे। पक्की सड़क थोड़ी दूर तक ही आकर ख़त्म हो गई थी। आगे कच्छा रास्ता था, जो बारिश होने की वजह से किछाद भरे रस्ते में बदल चूका था। बच बचा कर संगम स्थल तक पहुचे । दूर तक नदी ही दिखाई दे रही थी । एक तरफ से गंगा ,दूसरी तरफ से यमुना आ कर मिल गई थी। दोनों के मिलन स्थल को ही संगम कहते हैं। इस संगम पर हिन्दू धर्म में स्नान करने का बड़ा महत्व हैं । नदी में KAFI नावे भी थी। और उस नावो पर कई लोग भी बैठे थे।
नदी में कई लोग स्नान भी कर रहे थे। हमने भी स्नान करने का मन हुआ परन्तु उचित कपडे न होने की वजह से हमने याह विचार छोड़ दिया। वाही आधा घंटा रुक कर NADIYO की हलचल देखने लगे।
दो नदियाँ परन्तु दोनों ही अलग अलग स्वभाव की। जहाँ गंगा का पानी तेज़ भाहाव में था, वहीँ यमुना के पानी की रफ़्तार कम थी।
वहीँ से लगभग २ -३किलोमीटर दूर एक पुल नज़र आ रहा था, यमुना पर बना था। यह पुल केवल दो बड़े खम्बो पर टिका था और लगभग १०४ तारो से बाधा था। मन तो उस पुल को समीप से देखने को कर रहा था। परन्तु अंधेरा होने लगा था तो हमने लौट जाना ही उचित समझा।
७ बजे हम राम प्रिय चल दिए...................
Friday, March 19, 2010
मेरी DIARY के पन्ने PART- 3
THURDAY SEP. 15, 2005
आज हम कंपनी बाग़ जाने हैं। इसीलए सुबह जल्दी उठ गए । पर दोपहर तक रुकना पड़ा। कारण बारिश । दोपहर १ बजे हम घूमने निकले । बारिश बंद हुवे अभी एक घंटा ही हुवा था। अच्छा मौसम बना हुआ था। बादल अभी भी थे।
लगभग २ बजे हम बाग़ में थे। बाग़ बहुत बड़ा व् सुंदर था । हर तरफ हरियाली नज़र आ रही थी। दोपहर होने के कारण ज्यादा भीड़ नहीं थी ; बस कुछ ही लोग नज़र आ रहे थे।
उस बाद को तीन हिस्सों में बटा था।
1. बड़ा बगीचा
2. आजाद पार्क
3. ALLAHABAD मुसयूम
बाग़ में इधर उधर घुमते रहे। फिर एक जगह बैठ गए । वाही पास में किसी की मजार बनी थी। मजार भी काफी अच्छी हालात में थी और खूबसूरत भी लग रही थी। पर मालुम न चल सका मजार किस की थी।
काफी वक़्त गुजार लेने के बाद हम आजाद पार्क की तरफ चल दिए। यही पर अंग्रेजो के साथ मुबकले में चन्द्र शेखर आजाद शहीद हुवे थे।
वो स्थान पवित्र था, जहाँ पर आजाद ने आखिरी सांस ली थी। उस स्थान पर किसी को भी बिना चप्पल जुटे उतारे जाने नहीं दिया जाता था। वहा पर एक बोर्ड भी लगा हुवा था के चप्पल जुटे उतार कर शहीद को नमन करे।हमने भी वैसा ही किया । सचमुच में बड़ा पवित्र स्थान था। उस शहीद को मैंने और सोनू ने दो मिनिट तक मौन रह कर नमन किया। उस जामुन के पेड़ के नीचे आजाद की समाधी आज भी हम सब को याद दिलाती हैं के ये आजादी जो आज हम को मिली हैं उसके पीछे न जाने कितने जाने अनजाने शहीदों के बलिदान के बाद मिली हैं। सलाम हैं उस वीर पुरुष को , जिसने कभी अंग्रेजो से हार नहीं मानी ; मौत भी खुद चुनी। खुद को मौत दी पर अंग्रेजो के हाथ नहीं आया। अंग्रेजो ने ये दिखया के आजाद उनकी गोली का शिकार हुआ ,जबकि आजाद ने खुद अपना बलिदान दिया था। उस सचे सैनिक को नम आँखों से नमन कर हम MUSEUM की तरफ चल दिए।
MUSEUM के अंदर जाने का 5/- टिकिट रखा हुआ था। 5/- भारतीयों के लिए था। विदेशियों के लिए 100/- टिकिट था। टिकिट ले कर हम अंदर गए। हमारी टिकिट एक सिपाही ने जाची । फिर अंदर जाने की इज्जात दे दी
अंदर सबसे पहले आजाद की बंदूख राखी हुई थी। और वाही पर एक तस्वीर भी थी; जो आजाद की शाहदाद के बाद की थी। काफी देर तक हम उसी बंदूख और तस्वीर को देखते रहे।
फिर आगे चल दिए। वहा अगल अगल विभाग बना रखे गए थे। देखने को बहुत कुछ था।
कहीं पुराने जमाने की मुर्तिया थी, कहीं पुराने जमाने के सिक्के तो कहीं पुराने जमाने के बर्तन , कहीं दुर्लभ जानवरों के मृत शारीर को भूसा भर कर लगा रखा गया था , तो कहीं राजे महाराजो के हथियारों की प्रदर्शनी । कहीं जवाहार लाल से सम्बंधित वस्तुवे तो कहीं सुमित्रा नन्द पंथ की। कहीं पुराने समय की पेंटिंग तो कहीं आधुनिक पेंटिंग्स । कहीं बुक्स तो कहीं देवी देवताओ के चित्र ।
हम लगभग 3 घंटे घुमते रहे। वहां अच्छी खासी भीड़ थी। सभी MUSEUM की प्रसंसा कर रहे थे। मेरा भी दिल वाह वाह कर रहा था। सच कहूँ तो वहां से आने का दिल बिलकुल भी नहीं था
फिर हम MUSEUM से निकले और राम्प्रियाकी तरफ चल दिए.
Saturday, March 13, 2010
मेरी DIARY के पन्ने PART 2
बुधवार 14 SEPTEMBAR, 2005
सुबह जल्दी उठ गए। सोनू अपनी कोचिग चला गया। जो सुबह 7 बजे से थी 11 बजे तक। मैं रूम पर था। सुबह नहाकर प्रयाग स्टेशन तक चला गयाघूमने के लिए। सोनू दास बजे तक ही लोट आया था।
दोपहर बाद खाना खा कर घूमने का निश्चय किया। सुबह से बादल छाये थे ठंडी हवा बह रही थी । लगभग तीन बजे हम आन्नद भवन घूमने निकले।
हम आन्नद भवन पैदल ही गए। पैदल चलने का मन मौसम की वजह से हुआ। ठन्डे मौसम में मजा दुगुना हो गया। आन्नद भवन के रास्ते में ALLAHABAD UNIVERSITY का ARTS DEPARTMENT का कॉलेज था।
पर फिलहाल हमारा मन आन्नद भवन जाने का था। हम आन्नद भवन ठीक समय पर पहुचे थे। अगर एक दो घंटे लेट हो जाते तो शायद आन्नद भवन बंद हो गया होता।
आन्नद भवन
यही पर हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नहेरु जी का जन्म हुआ था। यह भवन उनके पिता जी श्री मोती लाल नेहरु जी का था।
जैसे ही हम हम अंदर ENTER हुवे वो खुबसूरत भवन दिखाई दिया। वेसे वो बहुत ज्यादा विशाल न था पर उस भवन पर एक नज़र पड़ते ही दिल पर उसका जादू चढ़ गया। चारो तरफ बाग़ बना था। हरियाली चारो तरफ दिखाई दे रही थी। हालाकि फूल ज्यादा न थे, पर फूल हो या न हो ; कोई फर्क नहीं पड़ता था। क्युकी आन्नद भवन फूल से कम नहीं था।
यह भवन इंदिरा गाँधी जी ने सत्तर के दशक में नगर निगम को सौप दिया था। इस भवन की हर चीज़ लाजवाब लग रही थी। हम घुमते हुवे एक कमरे की तरफ गए जहाँ जवाहर लाल के जीवन के सफ़र से जुडी तस्वीरे लगी हुई थी। इस वक़्त आँखे बंद करता हु तो वो सभी तस्वीरे समाने दिखाई देती हैं।
वहा SOUTH INDIAN भी आये हुवे थे। वे सभी उन तस्वीरो को बड़े उत्साह से देख रहे थे । मैं भी बड़े इत्मिनान से देख रहा था पर शायद सोनू उनको देखने में कम ही दिलचस्पी ले रहा था।
कोई बात नही मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा था। तस्वीरे देख कर .भवन की तरफ गए। उसके दरवाजो पर शीशे लगे थे। अंदर लाल जी के द्वारा USED FURNITURE रखा हुआ था। हमने घूम घूम कर उन सामानों को देखा । फिर वहा से निकल कर पास में बने स्वराज भवन की तरफ गए। वहा बने एक हाल में एक शो चलता हैं जो जवाहर लाल नेहरु पर बनी कोई DOCUMENTRY FLIM थी।
हमने वो शो न देखने का सोचा। स्वराज भवन से निकल क़र हम आन्नद भवन आ गए । वाही एक रूम में एक बुक शॉप थी, बहुत सी बुक्स थी, जो सेल के लिए राखी गई थी। मुझे एक बुक पसंद आ गई जो मैंने खरीद ली ।
बुक शॉप से निकल क़र हम गार्डेन में आ गए। गार्डेन की दूसरी तरफ हाल सा था। सोनू से पूछने पर पता चला के वो तारामंडल हैं .पर वक़्त वो बंद था।
मौसम सुहाना था। ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। मेरा दिल चाह रहा था के यही पर बिठा रहू, पर आगे भी जाना था। फिर हम आन्नद भवन से निकल क़र बहार आ गए। कुछ दूर जाने पर humhe एक मंदिर मिला जिका नाम था , भरद्वाज आश्रम ,भगवान् राम अपने वन वास के समय ऋषि भरद्वाज से मिलने यही पर आये थे, ऋषि ने भगवान् को ज्ञान की बातें बताई थी।
मंदिर से आगे गए तो university के समाने आ गए । यह science डिपार्टमेंट था। पर हम अंदर न गए। आगे गए तो university road पर आये। यहाँ पर सस्ती दामो पर बुक्स मिल जाती हैं।
फिर थोडा यहाँ वहा घुमते रहे । शाम को सात बजे तक रूम पर थे।
रात में दिन भर की सैर के बारे में सोचता रहा। आन्नद भवन ,भरद्वाज आसाराम , इन सब के बारे में सोचता रहा ।
हालाकिं अल्लाहाबाद महानगर हैं , पर यहाँ सफाई पर धयान कम ही दिया जाता हैं । जहा तह कूड़ा मिल जाता थ। पर कोई बात नहीं अपनी अपनी जिम्मेदारिय होती हैं।
रात में थके होने के कारन जल्दी सो गए। सोने से पहले कल के programme के बारे में सोच लिया था। कल हम कंपनी बाग़ जाने वाले हैं।
Friday, March 12, 2010
मेरी diary के पन्ने
बात उन दिनों की हैं जब गर्मियों की छुटिया चल रही थी । मैंने अपनी नानी के गाँव (पांडेयपुर) गया था। इस बार में अकेले ही नानी के गाँव गया था। तभी मुझे अल्लाहाबाद जाने का मौका मिला। सोनू जो मेरी नानी के घर के पास रहता था। उसके साथ अल्लाहाबाद घूमने का आँखों देखा हाल मैंने diary में लिखा। उसी diary के पन्ने पेश हैं ।
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मगलवार 13 september, २००५
पांडेपुर ,सुल्तानपुर
दो दिन पहले रविवार को सोनू अल्लाहाबाद से आया था। उससे मिलकर अल्लाहाबाद घूमने का विचार किया। वेसे तो अल्लाहाबाद जाने की permission मागने की हिम्मत तो नहीं हो रही थी। अम्मा (नानी) से तो बिलकुल भी नहीं। पर मैंने सोचा अगर मामाजी की approch लागाई जाये तो बात बन सकती हैं। लेकिन उनको मनाना भी टेडी खीर ही था। फिर भी मैंने सोमवार की रात में मामाजी से फ़ोन पार जाने की permission माग ली। सुच कह रहा हूँ। उस वक़्त दिल बेइंतिहा धड़क रहा था । आगले पल क्या होगा कुछ खबर न थी। पर ये क्या ........जो सोचा उसका उल्टा हुआ। मुझे जाने की इज्जात मिल गई सिर्फ दो दिन के लिए।
मगलवार की सुबह मैंने अपना सामान तयार किया दोपहर के वक़्त 2 बजे हम निकले। ट्रेन लगभग 3:30 बजे थी। ट्रेन टाइम पर थी। भीड़ ज्यादा नहीं थी हम को बैठने की सीट मिल गई थी।
सुलतानपुर से चली ट्रेन प्रयाग (अल्लाहाबाद) 8:30 बजे रात में पहुची। ट्रेन यात्री गाड़ी थी, जो हर स्टेशन पर रूकती हैं कई बार इसे रोक क़र दूसरी ट्रेनों को क्रोस करवाया जाता था। यही कारन था जो की हम इतना लेट वहा पहुचे।
सोनू का रूम रामप्रिया कालोनी में था । जो प्रयाग स्टेशन के बिलकुल पास में हैं। स्टेशन से सीधे रूम पर पहुचे। थके होने के कारन खाना खा कर जल्दी ही सो गए।
Tuesday, March 9, 2010
सुबह सुबह की पहली किरण सी खिड़की से झाकती हुई ।
सोया था अभी तक मैं , होले से मुझे उठाती हुई ॥
पूरा दिन काम किया आराम कहाँ था एक भी पल।
थकी हुई थी बहुत वो लेकिन दिखी मुझे मुस्काती हुई ॥
पुरे दिन भूखी रही मेरे लिए उपवास किया ।
करवा चौथ की रात चाँद में मेरा अक्श निहारती हुई॥
बहुत थी भोली बीबी मेरी बड़ी थी नादान ।
चल पड़ी हैं संग मेरे अपने ख्वाब भुलाती हुई ॥
कुछ खो गया था उसका परेशां थी बहुत।
पूछा मैंने तो कुछ न बोली अपनी आँखे चुरती हुई ॥
Thursday, March 4, 2010
पार्ट-3
ये नजारा वह सभी लोगो ने देखा।
चाभियाँ लेकर मैं अपने रूम की तरफ हो गया और पीछे से मरियम ने दरवाजा बंद कर लिया।
"अरे निहाल, क्या हो गया था, अजीब अजीब हरकतें कर रहा था तू" श्याम ने कहा।
मैं कुछ न बोला और अपने रूम का दरवाजा खोला दिया और अंदर चला गया।
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अगले दिन मैंने ऑफिस के निकला तो देखा के जेनेलिया भी अपने रूम से निकल रही हैंअपने कुत्ते के साथ। हाँ उसके पास एक कुत्ता भी था जिसे वो सुबह शाम घुमाने ले जाया करती थी।
मेरी नज़रे उसकी नजरो से मिली। मैंने आँखों ही आँखों में कुछ कहना चाह रहा था। पर उसकी नज़रे सामान्य ही रही। जैसे वो खुद में ही खोई हुई हो।
उसका खुद में ही खोया रहना मुझे पसंद था। जी करता था की ऑफिस न जा कर उसे ही देखता रहू।
हमेशा सोचता रहता था की उससे बात कैसे करू। मैंने कभी दिल फेक आशिक किस्म का लड़का था पर न जाने मेरी आशिकी उसे देखते ही कहा घूम हो गई थी।
Friday, February 26, 2010
पार्ट 2
पहला दिन कुछ खास नहीं था । शाम पांच बजे तक में होटल आ गया था । श्याम और अविनाश से रूम की बात की थी , वो रविवार को रूम की तलाश में मदद करने वाले थे।
अगले दिन ऑफिस गया तो निवेदिता ने एक address दिया और कहा की उसने मुझे राजेश से बात करते सुन लिया था । उसने अपनी तरफ से मेरे लिए room की बात क़र ली हैं । मुझे बस वो देखने जाना हैं। मैंने निवेदिता को धन्यवाद दिया और कहा की sunday को देखने जा रहा हूँ।
sunday को श्याम और अविनाश के साथ रूम की तलाश में गए । सबसे पहले निवेदिता के दिए adderss पर गए । one single room था जिसमे दो लोग आराम से रह सकते हैं। room ठीक था । अच्छा भी लगा। माकन मालिक का फ़ोन नंबर भी ले लिया।
फिर श्याम और अविनाश के साथ कई room देखे पर कोई भी पसंद नहीं आया। श्याम ने कहा के "निवेदिता वाला room ही सही हैं। अभी उसे फ़ोन लगा क़र कह के आज ही आने वाला हैं।"
अपना सामान के क़र हम तीनो वह पहुच गए।
माकन मकिल ने बताया था की room की keys उसने सामने वाले घर पर छोड़ रखी हैं।
"जा जाकर keys ले आ तब तक हम सामान ले आते हैं। " श्याम ने कहा
मैंने call bell दबा दी और इंतज़ार करने लगा। दरवाजा खुलने की आवाज हुई ।
ओ मेरे भगवान् । ये क्या । दरवाजा खोलने वाली वो ही लड़की थी। जिसे मैंने पहले दिन M.G . ROAD पर देखा था । उसे देखते ही मेरे तो होश नौ दो ग्यारह हो चुके थे।
उसने पूछा -"जी"
पर मैंने कुछ सुना ही नहीं। यूँ लगा के वक़्त रुक गया हैं और मैं पत्थर की मूर्ति में तब्दील हो गया हूँ।
उसने दुबारा पूछा -"जी कौन हैं आप और क्या चाहते हैं क्या काम हैं।
तब ही अंदर से आवाज आई , जेनेलिया कौन हैं।
पता नहीं मम्मी कौन हैं। कुछ बोल नहीं रहा ।
तब ही उसकी मम्मी मरियम आ गई ।
ओ तो इसका नाम जेनेलिया हैं। मेरे कानो में उसका नाम गुजने लगा ।
"हाँ क्या काम हैं" उसकी मम्मी ने पूछा।
keys सामने वाले room की , श्याम ने beg नीचे रखते हुवे कहा। "वो मिस्टर तुकाराम पाटिल ने कहा के keys आपके पास रखी हैं।
"अच्छा तो आप सब रहने आ रहे हैं। सामने वाले room में " मरियम ने कहा।
"जी हम सब नहीं , सिर्फ ये , मेरा दोस्त निहाल रहेगा।" अविनाश ने कहा।
"ठीक है , जा जेनेलिया keys ले आ।"
मेरी नजरें जेनेलिया पर ही थी। इसका पता जेनेलिया को चल गया ।
मेरी नजरें अपने ऊपर देखकर वो रुक गई।
"क्या ये बोल नहीं सकता।" मरियम ने श्याम से कहते हुवे मेरी तरफ इशारा किया।
"नहीं एसा क्यों" अविनाश ने कहा।
"नहीं जब से आया हैं तब से चुप खड़ा हैं"
श्याम ने अपनी कोहनी मारी और मुझे होश में लाया।
"मेरा नाम निहाल सिंह हैं और मैं सामने वाले room में रहने आया हूँ । मैं जयपुर से हूँ। " मैंने एक ही साँस में कह डाला । फिर मैंने लम्बी साँस ली।
Tuesday, February 23, 2010
नई ग़ज़ल
दिल की ज़मीन पे आसमा सजा रखा हैं॥
आओगे न तुम इस महफ़िल में वादा करो ।
तुम्हारे इंतज़ार में दरवाजा खुला रखा हैं॥
मुझको देखकर लोग तेरा नाम लेते हैं।
किस के प्यार ने इसे दीवाना बना रखा हैं
किस रस्ते से जाऊ तो मुझको मिलो तुम ।
इसीलिए अपना हाथ पंडित को दिखा रखा हैं॥
कौन जीतेगा और कौन हारेगा देखना हैं।
दीये तूफान में हमने मुकाबला रखा हैं॥
कुछ न बचा सब कुछ लुटा दिया मैंने।
बची यादो को दाव पे लगा रखा हैं॥
जिन्दगी क्या हैं समझना समझाना क्या हैं।
अगर ये ही जीना है तो मरना क्या हैं ॥
अभी तो आये थे अभी चल भी दिए।
यूँ रोज रोज मिलना बिछड़ना क्या हैं॥
तुम दिल क्या बात आँखों से कहते हैं।
फिर आँख मिलकर चुराना क्या हैं॥
हमने तो अपना सब कुछ सौंप दिया हैं।
अब बार बार मेरे दर पे तेरा आना क्या हैं॥
मेरा आइना हैं तू तेरा आइना हूँ मैं ।
तो उस शीशे में तेरा सजना क्या हैं॥
मौत भी आएगी तो हसंकर मिलुगा में।
रूबरू उपरवाले के तेरा दीवाना क्या हैं॥