हाथों की छुवन से सिहर उठता हैं रोम रोम
एक लावा सा उबल उठता हैं तन मन में
और एकाकार होकर
सम्पूर्ण हो जाने का भाव
अपनी सीमाएं लाघ उठता हैं
दो जिस्म और दो जान जब एकाकार होकर
सृजन करती हैं एक नवजीवन का
और उसी पल ठीक उसी पल
प्रकृति और पुरुष का भाव अपने आप
साकार हो उठता हैं
एक लावा सा उबल उठता हैं तन मन में
और एकाकार होकर
सम्पूर्ण हो जाने का भाव
अपनी सीमाएं लाघ उठता हैं
दो जिस्म और दो जान जब एकाकार होकर
सृजन करती हैं एक नवजीवन का
और उसी पल ठीक उसी पल
प्रकृति और पुरुष का भाव अपने आप
साकार हो उठता हैं
1 comment:
Post a Comment